Saturday, September 5, 2009

vigyan shiksha

प्रिय भदोरिया जी,
आप ने तो अपना इमेज ही बदल लिया है. एक टफ लोहा और स्टील टेक्नोक्रेट से सीधा वहा जहा आदमी बनते है. मेरी सद्भावना आप के साथ है.

मेरे विचार से मोबाइल साइंस लैब न तो बचचो को अपील करती है न उससे उनके विज्ञानं के लिए नज़रिए में कुछ फर्क पड़ता है. विज्ञानं के बारे में समाज के सभी अंग कुछ ऐसी अवधारणा बनाते है की यह एक जादू जैसी चीज है या फिर ये विदेश में कही होता है यह अपने घर की खेती नहीं है.

वास्तव में आप उन्हें खुद से जीवन के हर पहलू में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की तथा घरेलु छोटे मोटे प्रयोग करके सीखने की सलाह दे या करा सके तो अति उत्तम होगा.ऐसी पद्धति को हमलोग "कबाड़ से जुगाड़ तक" का नाम दिए हुए थे. घर की हर टूटे फूटे चीजो से कुछ बना लेना जो खिलौना की तरह काम करे.

बच्चे हर तरफ बीज से पौधा बनते देखते है उसपर चिंतन करे की यह कैसे हुआ तो वे ज्यादा सीखेंगे. अलग तरह के बीजो को एक ही तरह की मिटटी में डालते है एक फल और दूसरा फुल कैसे बनता है या फिर फल बनाने के लिए फुल क्यों आवश्यक है. एक उसमे मीठा तो दूसरा खट्टा कैसे बनता है? चावल को क्यों उबालकर पकाते है गेहू को आटा और फिर रोटी कचौरी बनाते है क्या और कौन सी प्रतिक्रिया होती है. टीवी में जो प्रचार होता है उसकी क्रिटिकल जांच करे जैसे मुहले के चाचीयो से सर्वे करके की वे कौन सा साबुन इस्तेमाल करती है और क्यों - सस्ता होने की वजह है या महंगा या की उससे ज्यादा सफाई होती है या की टीवी के प्रचार की वजह से .
आप जब खुद से चिंतन करेंगे तो इस तरह के हजारो वैज्ञानिक प्रश्न आपके सामने आयेंगे.
आप एक विद्यालय में एक क्लास या पड़ोस के ५-५ बचो का एक दल बनाये जो इस तरह के प्रश्न लाये और फिर इसपर एक प्रोजेक्ट की तरह काम करे फुर्सत के छनो में या रविवार को.
अगर आप ऐसे प्रयोगों के डिटेल चाहेंगे तो हम आगे आपको सूचित करेंगे. तबतक के लिए बहुत बधाईया.

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